Wednesday, September 10, 2014

“खिचड़ी, चोखा और छिपकली”

खिचड़ी, चोखा और साथ में छिपकली। यह न ही कोई मेनू है और न ही कोई भोजन का प्रकार। यह एक घटना है जो मध्याह्न भोजन के अंतर्गत बच्चों को परोसा गया।
अगर हम ताजा घटना पर नजर डालें तो बिहार के सीतामढ़ी जिला के एक मिडिल स्कूल में मिड डे मील योजना के दौरान एक बच्चे की थाली में खिचड़ी, चोखा और छिपकली मिली। इससे बच्चा डर गया और अपने प्राचार्य को बताया, स्कूल के प्राचार्य ने उसकी थाली के खाने को फेंकवा दिया, लेकिन वह यह नहीं समझ सका कि छिपकली उसकी थाली में मिली है या पूरा खाना ही जहरीला हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि जहरीला खाना खाकर 124 बच्चे अस्वस्थ और बेहोश हो गये। जिसे नजदीकी स्वास्थ केन्द्र में भर्ती कराया गया।


खैर,  मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सरकार और प्रशासन मिड डे मील योजना के प्रति अभी तक सख्त नही हुई है। पिछले साल (जुलाई 2013) जब बिहार के सारण जिले में मिड डे मील में कीटनाशक का प्रयोग होने के कारण खाना खाने से अनेकों बच्चों की मौत हुई थी तो सरकार ने वादा किया था कि अब इस पर लगाम लगाया जायेगा। लेकिन यह वादा पूरी तरह से असफल होता नजर आय़ा।  इससे न केवल मध्याह्न भोजन योजना कलंकित हुआ बल्कि शिक्षा विभाग फिर से शर्मसार हुआ।

हमारे देश में यह योजना एक नई उम्मीद और आशाओं के साथ प्रारंभ किया गया था। इस योजना की शुरुआत 1995 में हुई लेकिन शुरुआत में इस योजना के तहत बच्चों को सिर्फ कच्चा अनाज दिया जाता था। बाद में 28 नवंबर 2002 से इस योजना के तहत बच्चों को स्कूल में ही मध्याह्न भोजन  (पकाया भोजन) दिया जाने लगा।

मध्याह्न भोजन योजना के पीछे मुख्य मकसद था कि बच्चों का नामांकन बढ़े और पौष्टिक आहार भी मिले। लेकिन सच यह है कि नामांकन तो बढ़ा पर पढ़ने के लिए नहीं वरन खाने के लिए। दूसरी ओर जिस भोजन मे छिपकली हो उस भोजन से पौष्टिकता के बारे में तो सोच भी नही सकते।

बिहार में मध्याह्न भोजन योजना हमेशा से विवाद और सूर्खियों में रहा है। कभी भोजन मे कीड़े का मिलना तो कभी सड़े अनाजों का प्रयोग करना। लगभग बहुतों ऐसी घटना घटी जिसमें मिड डे मील योजना कलंकित होता आया।

यूँ तो मुफ्त में खाना देने वाली योजनाओं में यह योजना विश्व की सबसे बड़ी योजना है। लेकिन बड़ी योजना का मतलब यह नही कि पूरी तरह से लापरवाह होना। देखा जाय तो इस योजना के आड़ मे शिक्षा भी चौपट होती जा रही है। क्योंकि ऐसा लगता है कि बच्चे ही नहीं बल्कि शिक्षक और कर्मचारी भी सिर्फ खाना पकाने और खिलाने के काम में ही लगे रहते हैं। अगर हम जमीनी हकीकत पर नजर डालें तो पता चलता है कि कई गांवों में तो स्कूल का अपना भवन है ही नहीं और खाना खुली जगह पर बनाया जाता है, तो किसी स्कूल में बच्चों को थाली की जगह पर पेपर पर खाना दिया जाता है। ये वो मासूम और गरीब बच्चे होते हैं जो बड़े चाव से भोजन ग्रहण करते हैं और फिर अगले दिन का इंतजार करते हैं।

मुझे तो ऐसा लगता है कि इस य़ोजना के कारण बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। आखिर किस बात की सजा इन बच्चों को दिया जा रहा है, क्या यह बच्चे गरीब और नासमझ हैं इसलिए।
यह योजना इतने दिनों बाद भी सशक्त नही हो पाई आखिर इसके पीछे जिम्मेवार कौन है? सरकार या स्थानीय प्रशासन या समाज या वो गरीब और मासूम बच्चे जो पढ़ाई के लिए नहीं बल्कि खाना खाने स्कूल जाते हैं या फिर वो माता-पिता जो अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजते हैं?

मिड डे मील योजना से संबंधित अन्य घटनाओं के लिए इस लिंक पर क्लिक करें ।

 

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